*भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत: परंपरा, पहचान और नवाचार का समागम*

 

*आलेख- निर्मल कुमार*

 

भारत की सांस्कृतिक विरासत केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शक भी है। यह विविधता की वह जीवंत परंपरा है जो हज़ारों वर्षों से कई धर्मों, भाषाओं, कलाओं और जीवनशैलियों को अपने भीतर समाहित किए हुए है। आज जब वैश्वीकरण, तकनीकी परिवर्तन और सामाजिक तनाव हमारे चारों ओर गहराते जा रहे हैं, भारत का यह साझा सांस्कृतिक बुनियाद एक ऐसा नैतिक और व्यावहारिक संसाधन बन कर उभरता है जिससे हम न केवल अपने देशवासियों को जोड़ सकते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी समरसता, सहयोग और सतत विकास का मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं।

सह-अस्तित्व की परंपरा और आध्यात्मिक एकता

भारत के इतिहास में सह-अस्तित्व की भावना सबसे प्रमुख रही है। हमारे संतों, कवियों और विचारकों ने कभी सीमाओं में विश्वास नहीं किया। कबीर, रैदास, गुरु नानक, संत तुकाराम, मीराबाई और बुल्ले शाह जैसे संतों ने धर्मों के बीच की दीवारों को तोड़कर आध्यात्मिक एकता का मार्ग दिखाया। सूफी और भक्ति आंदोलन ने भारत को एक साझा आध्यात्मिक चेतना दी, जिसने धर्म के नाम पर होने वाले विभाजन को चुनौती दी और प्रेम, करुणा, सेवा और समता को केंद्र में रखा।

आज अजमेर शरीफ, निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह, वाराणसी के घाट, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, कोणार्क और मदुरै के मंदिर जैसे स्थल न केवल तीर्थ हैं, बल्कि विविध सांस्कृतिक पहचान के मिलन बिंदु भी हैं। इन स्थलों पर हर वर्ग, धर्म और जाति के लोग समान श्रद्धा से आते हैं।

पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक समस्याओं का समाधान

भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणाली — जैसे आयुर्वेद, योग, सिद्ध चिकित्सा, वास्तु शास्त्र, पंचगव्य, जैविक खेती और पारंपरिक जल-संरक्षण प्रणाली — आज फिर से प्रासंगिक होती जा रही हैं। COVID-19 महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया प्राकृतिक जीवनशैली की ओर मुड़ी, तब भारत के योग और आयुर्वेद को नई वैश्विक मान्यता मिली।

रैनी वाटर हार्वेस्टिंग की सदियों पुरानी भारतीय तकनीकें — जैसे कि राजस्थान की बावड़ियां, कर्नाटक की कावेरी प्रणाली और पूर्वोत्तर भारत की बांस आधारित जल निकासी प्रणालियाँ — अब शहरी योजनाओं में शामिल की जा रही हैं। यह ज्ञान केवल ग्रामीण भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे महानगरों की योजनाओं में भी पारंपरिक जल प्रबंधन पद्धतियों को एकीकृत किया जा रहा है।

विविध कलाएँ: जीवित परंपराओं का स्वरूप

भारत की कलात्मक विरासत उतनी ही समृद्ध है जितनी कि इसकी आध्यात्मिक परंपरा। वारली, मधुबनी, गोंड, पट्टचित्र और फड़ चित्रकला जैसे जनजातीय और लोक कला रूप हमारी विविधता को जीवंत रखते हैं। कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मोहिनीअट्टम और बाउल संगीत जैसी कलाएँ आज भी नई पीढ़ियों द्वारा सीखी और प्रस्तुत की जा रही हैं।

डिजिटल युग में, इन कलाओं को पुनर्जीवित करने की ज़िम्मेदारी भी तकनीक ने ली है। “क्राफ्ट विलेज”, “गूगल आर्ट्स एंड कल्चर”, और “हुनर हाट” जैसी पहलें कारीगरों और कलाकारों को नए बाज़ार और दर्शक दे रही हैं। इससे न केवल संस्कृति संरक्षित हो रही है, बल्कि आजीविका के अवसर भी बढ़ रहे हैं।

जशपुर: आदिवासी विरासत की चमक

छत्तीसगढ़ का जशपुर ज़िला इस साझा विरासत की अनदेखी लेकिन अत्यंत मूल्यवान धरोहर है। यह क्षेत्र आदिवासी संस्कृति, पर्यावरणीय संतुलन और हस्तशिल्प कला का केंद्र रहा है। यहाँ की पत्थलगड़ी परंपरा, पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा प्रणाली और नृत्य जैसे सरहुल, कर्मा, दंडा, सुवा और पंथी आदिवासी गौरव के जीवंत रूप हैं।

जशपुर के बघिमा और गिंगला जैसे गाँवों में महिलाएं पारंपरिक हस्तशिल्प में माहिर हैं — जैसे बांस की टोकरियाँ, साज-सज्जा की वस्तुएं और स्थानीय प्राकृतिक रंगों से बने कपड़े। ये सिर्फ कलात्मक उत्पाद नहीं, बल्कि पारंपरिक ज्ञान की सजीव पुस्तकें हैं। इस जिले के बच्चों को अगर अपनी परंपरा से जोड़ा जाए तो वे वैश्विक नागरिक बनते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़ाव बनाए रख सकते हैं।

सांस्कृतिक कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध

भारत की सांस्कृतिक विरासत अब केवल सीमाओं के भीतर की बात नहीं रही। भारत-नेपाल के तारा धाम या भारत-भूटान की बौद्ध विरासत पर संयुक्त शोध परियोजनाएँ, बांग्लादेश के साथ साझा भाषा उत्सव, और श्रीलंका में रामायण पर्यटन सर्किट जैसे प्रयास इस बात का प्रमाण हैं कि सांस्कृतिक विरासत कूटनीति का एक मज़बूत माध्यम बन चुकी है।

नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार और बौद्ध सर्किट का विकास भारत की उस विरासत को दोबारा जीवित करने का प्रयास है, जिसने कभी एशिया को बौद्धिक और नैतिक नेतृत्व दिया था।

शिक्षा में विरासत की भूमिका

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि विद्यार्थियों को केवल रोजगार के योग्य ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से भी सजग और संवेदनशील नागरिक बनाया जाए। स्कूली पाठ्यक्रमों में स्थानीय इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और कला को स्थान देने से बच्चे अपनी जड़ों से जुड़ते हैं। देशभर में चल रही “हेरिटेज वॉक”, “लोक उत्सव” और “स्कूल इन म्यूज़ियम” जैसी पहलें इसी सोच का हिस्सा हैं।

निष्कर्ष: भविष्य की दिशा

भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एक स्थिर स्मारक नहीं है, बल्कि वह गतिशील धरोहर है जो निरंतर विकसित हो रही है। यह सिर्फ़ अतीत की कहानियाँ नहीं सुनाती, बल्कि हमें यह सिखाती है कि सहिष्णुता, विविधता और समावेशिता ही स्थायी प्रगति का मार्ग है।

आज जबकि पूरी दुनिया अपनी पहचान की तलाश में असमंजस में है, भारत के पास एक ऐसा सांस्कृतिक मॉडल है जो अतीत की गहराई, वर्तमान की चुनौती और भविष्य की संभावनाओं—तीनों को संतुलित करता है। इस मॉडल को और मज़बूत बनाने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को न केवल संरक्षित करें, बल्कि सक्रिय रूप से उसका उपयोग शिक्षा, रोजगार, सामाजिक समरसता और वैश्विक संवाद के लिए करें।

आइए, हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि भारत की यह बहुरंगी, बहुस्तरीय, और बहुधर्मी सांस्कृतिक धरोहर केवल किताबों और स्मारकों में न रह जाए, बल्कि हमारी ज़िंदगी की धड़कनों में बनी रहे — आज, कल और आने वाली पीढ़ियों तक।

*लेखक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक-सामाजिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।*